पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२७३

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प्रतीत नहीं होता। हाँ, 'विनिविष्टैपुरैर्नर्त' इस भाग में ओज का अंश है भी, पर चमत्कारी नहीं, और न सहृदयों को उसमे नाचते-से पदों का ही अनुभव होता है। रहा अन्य अंश, सो उसमें तो माधुर्य ही है।

ओज

जिनके आगे संयोग हो ऐसे हस्वों की अधिकता के रूप में जो गाढता होती है, उसे 'मोन' कहते हैं। जैसे निम्नलिखित पद्य में-

  • [१] साहङ्कारसुरासुरावलिकराकृष्टभ्रमन्मन्दिर-

क्षुभ्यत्क्षीरघिवल्गुवीचिवलयश्रीगर्वसर्वकषाः।
तृष्णाताम्यदमन्दतापसकुलैः सानन्दमालोकिता
भूमीभूषण! भूषयन्ति भुवनाभाग भवत्कोर्तयः॥

अथवा, जैसे "अयं पततु निर्दयम्......" इत्यादि पहले (रौद्र-रस मे) उदाहरण दिए हुए पद्य मे।


  1. * कवि कहता है कि-हे पृथिवी के अलंकार! अहंकार-सहित देवों और असुरो की पंक्तियों के हाथों से खींचे हुए, अतएव फिरते हुए, मंदराचल से सुब्ध हुए चोर-समुद्र की मनाहर तरंगों के मंडल की शोभा के गर्व को सर्वथा नष्ट कर देनेवाली और प्यास के मारे घबराए हुए तपस्त्रियों के समूहो से (तृषा-शांति का साधन समार) आनंद-पहित अवलोकन की हुई आपकी कीर्चियाँ समग्र-संसार को शोभित कर रही है।