पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२७९

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प्रायश्चित्त हु पूर्ण भे वृथा दान, तप, यजन सब।
सकल-मनोरथ-दैनि, तू जग मे जागति जननि जब॥

भक्त गङ्गाजी से कहता है-ब्रह्मा निश्चित होकर, अनंत काल तक, समाधि लगाते रहें, भगवान विष्णु शेष-शय्या पर सुख से सोते रहे और शिवजी भी सतत नृत्य करते रहें, हमे किसी की कुछ परवा नहीं। हमारे ( सब पापों के) प्रायश्चित्त हो चुके और हमें तप, दान तथा यजन किसी की कुछ आवश्यकता नहीं, जब कि हे जगदंबे । सब मनोरथो को पूर्ण करनेवाली तू जगत् में जग रही है। बता, फिर कोई हमारा क्या कर सकता है।

यहाँ 'ब्रह्मा-आदि से हमे कुछ भी प्रयोजन नहीं है। इस बात को 'समाधि लगाते रहे' इत्यादि प्रेरणाओं के रूप में, उक्ति की विचित्रता से, (अनेक प्रकार से) वर्णन किया गया है, अन्यथा 'अनवीकृतता' नामक दोष आ जाता।

सुकुमारता

बिना अवसर के शोकदायी-पन का न होना-यह जो कठोरता का अभाव है, इसे 'सुकुमारता' कहते हैं। जैसे-

त्वरया याति पान्याज्यं प्रियाविरहकातरः।

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प्रिया-विरह ते डरत यह पथिक तुरत घर जात।