पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२८५

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यहाँ (१) मुनि तप कर रहे हैं, (२) उनके मुँह से उसने वेद का अर्थ प्राप्त किया, (३) उसके बाद परब्रह्म वासुदेव मे चित्त प्रविष्ट किया और (४) तदनंतर मोक्ष को प्राप्त हो गया, इतने वास्यों के अर्थों का समूह शत-प्रत्यय (तपस्यतः ), क्त्वा प्रत्यय (अधिगत्य) और बहुव्रीहि समास (वासुदेवनिविष्टात्मा) के द्वारा अनुवाद्य रूप से और तिङन्त (क्रिया) (विवेश) के द्वारा विधेय रूप से लिखकर एक वाक्यार्थ के रूप में कर दिया गया है।

'साभिप्रायता' का अर्थ यह है कि जो वर्णन चल रहा है, उसको पुष्ट करना अर्थान् सहायता पहुँचाना। जैसे-

गणिकाजामिलमुख्यानवता भवता बताऽहमपि।
सीदन् भवमरुगर्त्ते करुणामृर्त्ते! न सर्वथोपेक्ष्यः॥

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गनिका-अनामेल-श्रादिक की रक्षा कीन्ही तुमने नाथ।
भव-मरु-खाड़े में सीदत मम करुना-मूरति! तजो न हाथ॥

हे करुणामूर्ते। गणिका (पिङ्गला) और अजामिल आदि जिनमे मुख्य हैं, उन (बड़े बड़े पापियों) की रक्षा करनेवाले आप संसाररूपी मरुस्थल के (निर्जल) गड्ढे मे दुःख पाता हुआ जो मैं हूँ, उसकी सर्वथा उपेक्षा न करिएगा-मुझे बिलकुल ही न भूल जाइएगा।

यहाँ 'उपेक्षा न करिएगा' इस बात को पुष्ट करने के लिये भगवान को 'करुणामूर्त्ति' विशेषण दिया गया है, जिससे सिद्ध