पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२८६

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होता है कि आप परम दयालु हैं, आप मेरी उपेक्षा करे यह हो ही नहीं सकता। 'पर, यदि पापी समझकर करुणा न करे, तो यह भी आपके स्वभाव के विरुद्ध है। इस बात को सिद्ध करने के लिये गणिका आदि का दृष्टांत दिया गया है और अपना विशेषण 'दुःख पाता हुआ लिखा है। सो यहाँ एक भी पद निरर्थक नहीं है, सबमे कुछ न कुछ अभिप्राय है।

कांति

रस के स्पष्टतया प्रतीत होने को 'कांति' कहते हैं। इसके उदाहरण रस प्रकरण मे वर्णन कर चुके हैं और आगे भी वर्णन किए जायेंगे।

समाधि

"जिस बात का मैं वर्णन कर रहा हूँ, वह पहले (किसी के द्वारा) वर्णन नहीं की गई है, अथवा पूर्वोक्त की बाया ही है यह" जो कवि का सोचना है, इसे 'समाधि' कहते हैं। आप कहेंगे कि 'सोचना' एक प्रकार का ज्ञान है, और ज्ञान आत्मा का गुण है, अर्थ का गुण तो है नही, फिर इसे आपने अर्थ-गुणों में कैसे गिन लिया? इसका समाधान यह है कि ज्ञान भी तो किसी न किसी अर्थ के विषय में ही होता है, अतः जिस तरह वह समवाय-संबंध से आत्मा मे रहता है, वैसे ही विषयता-संबंध से अर्थ मे भी रहता है, सो उसे अर्थ-गुण मानने में कोई बाधा