पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२८९

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अति पकिबे ते द्रवत दाख अरु मधु को, पूरो।
परम-माधुरी-गरव करत जे बढ़ि बढ़ि दूरो॥
तिन बानिन निरमान माहि जो निपुन अहै तू।
तो कविता कहु, परम मुदित ह्वै, मो-समुहै तू॥
नतरु कर्ण-क्टु काव्य की कथा व्यर्थ, मदमत्त बनि।
निज दुष्ट कर्म लौं हृदय ते बाहिर हू करु मूढ़! जनि॥

यदि तू अत्यंत पकने के कारण भरती हुई दाख और शहद की मधुरता के मद को हटा देने में तत्पर वचनों की रचना का पूर्ण मर्मज्ञ है, तो हे सखे! तू अपनी कविता को मेरे जैसे लोगों के सामने आनंद से कह। पर यदि ऐसा न कर सकता हो, तो जिस तरह अपने किए हुए पाप को किसी के सामने प्रकट नहीं किया जाता, इसी तरह उसे अपने हृदय के बाहर न कर-मन की मन ही मे रख ले, जबान पर मत पाने दे।

यहाँ अलौकिक काव्य के निर्माण का वर्णन करने के लिये बनाए हुए तीन चरणों मे जिस मार्ग का अवलंबन किया गया है, उसका हीन-काव्य के प्रतिपादन करने के लिये बनाए हुए चौथे चरण मे नही किया गया। सो यहाँ विषमता ही गुण है, और यदि समता अर्थात् एक ही रीति-कर दी जाय, तो उलटा दोष हो जायगी।

अच्छा, अब रही कांति और सुकुमारता; सो वे ग्राम्यत्व और कष्टत्व नामक जो दोष हैं, उनका त्याग देना मात्र है;