पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२९३

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सेह-सलिल के सघन कनन शोमित कपोल-वर।
अन्तरगत मृदु हँसन, अलस चितवन ते मनहर॥
अरुन-नयवि की वह अकथ थिति, अतिसै मुन्दर।
सुमिरत होत अनंद केर अंकुर उर-अंतर॥

नायक अपने मित्र से कहता है कि-जिसका कपोलस्थल पसीने के जल की सघन बूंदो से सुशोभित है और जो भीतरी मंद हास तथा आलस्ययुक्त चितवन से प्रशंसनीय है; वह मदमाते नेत्रवाली नायिका की रमणीय और अनिर्वचनीय अवस्था स्मरण करते ही हृदय मे आनंद को अंकुरित कर देती है।

यहाँ पहले पद्य में, अतिशयोक्ति से अलंकृत, जो भगवान् के ध्यान की उत्सुकता है, उसका; अथवा भगवान के विषय में जो प्रेम है, उसका; अंततो गत्वा शांत-रस में ही पर्यवसान होता है; अतः यह रचना शांत-रस के माधुर्य को अभिव्यक्त करती है और दूसरे पद्य मे स्मरण के सहारे उपस्थित हुए (स्मृत) शृंगार-रस के माधुर्य को अभिव्यक्त करती है।

ओजो-व्यंजक रचना

ओज-गुण का बंध, समीप समीप मे प्रयोग किए हुए वर्गों के दूसरे और चौथे अर्थात् ख-घ-आदि-अक्षरों, टवर्ग के अक्षरों और जिनमें जिह्वामूलीय, उपष्मानीय, विसर्ग और सकार आदि अधिक हो-ऐसे अक्षरो से बना हुआ, वर्गों के प्रादि के चार अक्षरों अथवा रेफ के द्वारा वने हुए संयोग जिनके आगे हों-ऐसे और समीप समीप मे प्रयोग किए हुए हख स्वरो से युक्त