पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२९५

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मुकुलित किय मन मदन सतत चिन्ता उपजाके।
सखियां निष्प्रभ भईं, पानपत्ति विनवत थाके॥
रहै यहै सब, करौ निवेदन इतना तोसों।
राखत तू जो सखी। हितू को नातो मोसों॥
भोरी। मान न करु, न तरु मान-मलिन यह मुख-नलिन।
हारि जाइगो सरद के राकापति सो जोति बिन॥

मानिनी नायिका से सखी कहती है कि कामदेव का चित्त चिन्ता से बिलकुल घिर गया है-उसमे सोचने की शक्ति ही नही रहा है, सखियाँ (सोच के मारे) कांति-हीन हो गई हैं और प्राणनाथ प्रेम के कारण अधोर हो उठे हैं-अब तो हठ छोड़ दे। अच्छा, यह भी रहने दे; पर यदि तू मेरे कथन को भला समझती है जैसा कि सदा से समझती आई हैतो तुझसे इतना निवेदन कर देती हूँ कि मुग्धे! तू मान न कर; अन्यथा इस सुंदर मुखड़े को पूर्ण चंद्रमा जीत जावेगारोष से मुख में मलिनता आ जाने के कारण उस कलङ्की की इससे तुलना हो जायगो जो पहले कभी न थी। हाय रे! भोलापन!! क्या अब भी प्रमन्न होना नहीं चाहती।

यह पूरा पद्य प्रसाद-गुण को अभिव्यक्त करता है, और किसी किसी अंश मे माधुर्य तथाओज कोभी, क्योंकि चिन्तामीलितमानसो मनसिज' और 'मा कुरु मानमाननमिदम्' इन भागों से माधुर्य की, और 'सख्यो विहीनप्रभा:......' मादि भागों से आज की भी अभिव्यक्ति होती है।