पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२९६

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आप शंका कर सकते हैं कि यहाँ श्रृंगाररस में रहनेवाले माधुर्य को अभिव्यक्त करने के लिये उसके अनुकूल रचना भले ही रहे पर ओज का यहाँ प्रसंग ही क्या है कि उसके अनुकूल अक्षरों का विन्यास किया गया। इसका समाधान यह है कि-सखी ने नायिका का नान शांत करने के लिये अनेक यत्न किए और उसके भले की वात कह रही है, तथापि वह प्रसन्न न हुई: अतः उसे क्रोध आ गया। सो उसकी क्रोधयुक्तचा को अभिव्यक्त करने के लिये वह विन्यास भी सफल है। अधिक कहने की आवश्यकता नहीं, (यह सिद्धांत है कि) जहाँ ओजस्वी रस और अमर्षादि भावों के वर्णन की इच्छा न हो, वहाँ भी यदि बोलनेवाले का क्रोधापन प्रसिद्ध हो, अथवा जिस अर्थ का वर्णन किया जाता हो, वह अत्यंत क्रूर हो, यद्वा जो निबंध लिखा जा रहा हो, वह आख्यायिका आदि हो, तो कठिन वर्णों की रचना होनी चाहिए।

अच्छा, छोड़िए इस सब पंचायती को, आप केवल प्रसाद गुण का ही उदाहरण सुनिए-

वाचा निर्मलया सुधामधुरया यां नाथ! शिक्षामदा-
स्तां स्वप्नेपि न संस्पृशाम्यहमहंभावावृतो निस्त्रपः।
इत्यागःशतशालिन पुनरपि स्वीयेषु मां विभ्रत-
स्त्वत्तो नास्ति दयानिधिर्यदुपते मत्तो न मत्तः परः॥

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