पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२९९

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के मर्मज्ञ ही समझ सकते हैं। यह अर्थात् पहन्त के बाद तीसरं का और दूसर के बाद तीसरं का प्रयोग भी यदि वारवार हुआ, तो उसे साधारण मनुष्य भी समझ सकते हैं, जैसे- खगकलानिधिरेष बिजृन्मते' और 'इति वदति दिवानिणं घन्यः' इत्यादि में। पंचम वर्गा अश्यांत ढकारादिकों का तो नधुर होने के कारण अपने वर्ग के अक्षरों के पहले अथवा पीछे आना बुरा नहीं प्रतीत होता, जैसे-'तनुते तनुतां तनौ' इत्यादि में। परंतु एक ही अन्नर का साथ ही साथ वार बार प्रयोग तो उनका भी प्रश्रय होता है। जैसे—'मम महती मनसि व्यथाऽऽविरासीन्' यहाँ।

ये अश्रव्यताएँ गुरु अक्षर के वीच न आ जान से हट जाती हैं; जैसे-'संजायतां कथङ्कारं काके केकाकलस्वनः' । इत्यादि । अथवा, जैसे-

  • [१] यथा यया नामरसायतमा

नया सरागं नितरां निषेविता।
नया तथा तत्त्वस्येव सर्वतो
विकृष्य मामेकरसञ्चकार सा॥ यहाँ।


  1. * नायक अपने मित्र से कहता है कि मैंन कमल से विशाल नेत्रवाली (दस नायिका) को ज्यों ज्यों प्रेमसहित पूर्णतया सेवन किया त्यों त्यों उसने मुझे तन्त्र-कथा (ब्रह्मविचार)की तरह, सब तरफ से खींचकर, एक रस कर लिया-अर्थात् जैसे ब्रह्मज्ञानी को पिवाय ब्रह्म के और कुछ नी नहीं चून्ना वैसे मुझे सिवाय उसके और कुछ भी नहीं सुझने देगा।