पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३०४

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  • [१] भुजगाहितप्रकृतयो गारुडमन्त्रा इवाऽवनीरमण!

तारा इव तुरगा इव सुखलीना मन्त्रिणा भवतः॥

यह कविता कैसे कर डाली-यहाँ तो इनकी भरमार है; तो हम उत्तर देते हैं कि-(कृपया) यकार का लोप न करके । पढ़िए, अर्थात् 'मन्त्रायिवा' 'तारायिव' 'तुरगायिव' यो पढ़िए । इसी तरह 'रु' के 'उ', हल पर रहते 'य' के लेोप, यण, गुण, वृद्धि, सवर्ण-दीर्घ और पूर्व-रूपादिकों का समीप समीप मे अधिक प्रयोग भी अश्रव्यता का कारण होता है।

ये उपर्युक्त सभी अश्रव्यों के भेद सभी काव्यों में वर्जनीय हैं, चाहे किसी रस का वर्णन हो, इन अश्रव्यताओं का न आने देना ही उचित है। विशेष दोष अब विशेषतया वर्जनीयों (अर्थात् जिन्हें किसी रस में छोड़ना चाहिए,) का वर्णन किया जाता है। उनमे से, जो दोष मधुर-रसों मे निषिद्ध हैं और जिनका अभी वर्णन किया जावेगा, वे ओजस्वी रसों के अनुकूल होते हैं-वहाँ


  1. * कवि कहता है-हे राजन्, आपके मंत्री, गारुड़ मंत्री की तरह, जिनका स्वभाव भुजगो (जारो+सर्पों) के लिये अहित है, ऐसे है अर्थात् जैसे गारुड मनस्वभावतः सर्पों के विरुद्ध हैं, उसी प्रकार आपके मत्री स्वभावतः गुंडो के विरुद्ध है, और, तारों की तरह तथा घोड़ो की तरह, सुखलीन (अच्छे आकाश में स्थित+अच्छी लगामवाले+आनन्दमग्न) है।