पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३०६

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सायाहनि प्रणयिनो भवनं व्रजन्त्या-
श्चेतो न कस्य हरते गतिरङ्गनायाः॥

यहाँ पूवार्ध में-

जिनके आगे वर्गों के पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे वर्गों के संयोग हों-ऐसे हस्वों की अधिकता; जैसे-

  • [१] हीरस्फुरद्रदनशुभ्रिमशोभि किञ्च

सान्द्रामृतं वदनमेणविलोचनायाः।
वेधा विधाय पुनरुक्तमिवेन्दुविम्वं
दूरीकरोति न कथं विदुषां वरेण्यः॥

इस पद्य मे 'भ्रि' शब्द पर्यन्त जो रचना है, वह श्रृंगार रस के प्रतिकूल है, शेष सुंदर है। यद्यपि उत्तरार्ध मे, 'पुनरुक्त शब्द मे, ककार और तकार का संयोग है, तथापि ऐसे संयोगों की प्रचुरता न होने के कारण दोष नहीं गिना जा सकता। और यदि इसी पद्य के आदि मे 'दन्तांशुकान्तमरविन्दरमापहारि...' बना दिया जाय, तो सभी पद्य सुन्दर हो सकता है।


के समय, अपने प्रेमी के घर जाती हुई अंगना की चाल किसका चित्त नहीं चुराती?

  1. * हीरो के समान चमकते हुए दांतो की धवलता से शोभित और सघन अमृत से युक्त मृग-नयनी के मुख को बनाकर, विद्वानों में श्रेष्ठ विधाता पुनरुक के समान (नीरस) चंद्र-बिंब को क्यो नहीं हटा देता है-अव भी इसे आकाश में क्यो टगि रक्खा है!