पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३१४

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परिशीलन कर; जिससे कि कुमुद आनंद की अत्यंत अधिकता को प्राप्त हो जायँ अर्थात् पूरी तरह खिल उठे और दिशाएँ अपने मुखो को पूर्णतया उल्लासयुक बना लें उनके प्रारंभिक भाग अच्छी तरह प्रकाशित हो जाय। इत्यादि में। अथवा, बिहारी के इस दोहे मे-

नभ लाली, चाली निशा, चटकाली धुनि कीन।
रति पाली भाली! अनत पाए वनमाली न॥

इस तरह, प्रसंग आ जाने के कारण, मधुर-रसों को अभिव्यक्त करनेवाली रचना के इन दोषों का थोड़ा सा निरूपण कर दिया गया है।

संग्रह

एभिर्विशेषविषयैः सामान्यैरपि च दूषण रहिता।
माधुर्य-भार-भंगुर-सुन्दर-पद-वर्ण-विन्यासा॥
व्युत्पत्तिमुगिरंती निर्मातुर्या प्रसादयुता।
तां विबुधा वैदर्भी वदंति वृत्तिं गृहीतपरिपाकाम्॥

जो इन विशेष और साधारण-दोनों प्रकार के दोषो से रहित हो, जिसके पदों और वर्णों की रचना माधुर्य-गुण के भार से फटी पड़ती हो, जिससे बनानेवाले कवि की व्युत्पत्ति प्रकाशित होती हो, जो प्रसाद-गुण से युक्त हो, और पूर्ण परिपक्व–अर्थात् रस की घार वाँध देनेवाली हो, उस रचना