पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३१५

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को विद्वान लोग 'वैदर्भी वृत्ति' कहते हैं। इस रचना के कितने ही पद्य उदाहरणों मे आ ही चुके हैं; अथवा, जैसे

आयातैव निशा, निशापतिकरैः कोर्ण दिशामतरम्
भामिन्यो भवनेषु भूषणगणैरुल्लासयन्ति श्रियम्।
वामे! मानमपाकरोपि न मनागद्यापि रोषेण ते
हा! हा!! बालमृणालतोऽप्यतितमां तन्वी तनुस्ताम्यति॥

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आ ही गई रजनी, रजनी-पति केरि मरीचि भरी दिग-अंतर।
भनिन-भौनन भामिनियाँ बहु भूषन साजि लहै छवि सुंदर॥
रंचहु मान भई न कमी अजहू तुव, वाम! गयो सब वासर।
वाल-मृणालहु ते दुबरो तन ये रिस ते कुम्हिलात निरंतर ॥

नायक नायिका से कहता है-प्रिये, अब रात आ ही गई है-आने मे थोड़ी भी देरी नहीं है; देख, निशानाथ-चंद्रदेवकी किरणो से दिशाम्रों के मध्यभाग व्याप्त हो चुके हैं। जो स्त्रियाँ प्रणय कोप से भो युक्त थी, वे पी अनेक आभूषण पहिनपहिनकर भवनों मे शोभा के डंबर बाँध रही हैं। हे वामे! हे संसार-भर से उलटे रास्ते पर चलनेवाली! तू अब भी मान को किंचित् भी कम नहीं कर रही है। हाय! हाय!! देख तो सही! यह नए मृणाल से भी अत्यंत दुर्बल तेरा शरीर रोष के मारे घबरा रहा है। जाने दे, यदि हमारे ऊपर दया नहीं करती तो मत कर; पर इस सुकुमार शरीर पर तो दया कर।