पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३१६

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इस रीति के निर्माण करते समय कवि को अत्यंत सावधान रहना चाहिए, अन्यथा परिपाक का भंग हो जायगारस जितना मधुर बनना चाहिए उतना न बन सकेगा। जैसा कि अमरुक कवि के पद्य मे हुआ है

शून्य वासगृहं विलोक्य शयनादुत्थाय किंचिच्छनै-
र्निद्राव्याजमुपागतस्य सुचिरं निर्वर्ण्य पत्युमुखम्।
विस्रब्धं परिचुम्ब्य जात-पुलकामालोक्य गण्डस्थली
लज्जानम्रमुखी, प्रियेण हसता, वाला चिरं चुम्विता॥

बालिका ने जब देखा कि अब निवास-गृह बिलकुल शून्य हो गया है-कही किसी की भनक भी नहीं सुनाई देती, तो शय्या से धीरे-धीरे कुछ उठी और झूठ-मूठ निद्रा लेते हुए पति के मुख को बहुत समय वक देखती रही। जब उसे विश्वास हो गया कि पति महाशय गहरी नीद में हैं, तो उसने उसके मुख को अच्छी तरह चूमा; पर चूम चुकने के बाद जब उसने देखा कि पति के कपाल प्रदेश रोमांचित हो उठे हैं, तो लज्जा के मारे मुंह नीचा हो गया-सामने न देख सकी। फिर क्या था? प्यारेजी की बन पड़ी, उन्होंने हँस-हँसकर घड़ी देर तक चूमा।

इस पद्य मे 'उत्थाय' और 'किचिच्छनैः' इन दो स्थानों पर दो-दो सवर्ण झयों का संयोग है, और वह भी समीपसमीप मे; अतः अत्यंत अन्नव्य है। इसी तरह इसी स्थान