पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( २०३ )

रसों के प्रतिपादन करनेवाले काव्य की पदावलि मे अतिव्याप्ति हो जाती है, क्योंकि अर्थ के द्वारा शब्द भी रसों को ध्वनित करते हैं। आप कह सकते हैं कि इसी लक्षण में 'जो बिना किसी द्वार के रसों का व्यंजक हो' इस तरह व्यंजक का एक विशेषण और बढा देंगे, वो पदावलि मे अतिव्याप्ति न होगी। पर, यदि ऐसा किया जाय, तो लक्षण मे असंभव दोष आ जायगा, अर्थात् यह भाव का लक्षण ही न होगा, क्योंकि भाव भी-भावना बार-बार अनुसंधान-के द्वारा ही रस को ध्वनित करते हैं। दूसरे, भावना मे अतिव्याप्ति भी हो जायगी; क्योंकि बिना किसी द्वार के रसों को वही ध्वनित करती है। और, जिस तरह, लक्षण मे, 'विभावों और अनुभावों के अतिरिक्त' विशेषण दिया गया है, उसी तरह यदि शब्द के अतिरिक्त' यह व्यंजक का विशेषण और रख दें, तो भी छुटकारा नही, क्योंकि फिर भो भावना मे तो अतिव्याप्ति रहे ही गी। एवम्, जो भाव प्रधानतया ध्वनित होता है, वह रसों का व्यंजक नहीं होता, अत: उसमे लक्षण की अव्याप्ति भो होगी-अर्थात् उस भाव का यह लक्षण नही बन सकेगा। आप कहेंगे कि जहाँ भाव की ध्वनि प्रधान होती है, वहाँ भी अन्ततो गत्वा तो रस की अभिव्यक्ति होती ही है, अतः उसमे भी रस-व्यंजकता है ही; तो हम कहेंगे कि फिर 'भाव-ध्वनि का लोप ही हो जायगा। यदि फिर भी कहो कि-भाव के अधिक चमत्कारी होने के कारण उसे 'भावध्वनि' कहा जाता है यद्यपि वहाँ भी,