आवश्यकता ही नहीं; सो भी नहीं हो सकता; क्योंकि 'भावत्व' को अखण्ड मानने मे कोई प्रमाण*[१] नहीं।
ये तो हुई पूर्व-पक्ष की बाते; अब सिद्धान्त मे भाव किसे कहते हैं, सो सुनिए
विभावादिकों के द्वारा ध्वनित किए जानेवाले हर्ष आदिकों (जिनकी गणना आगे की जायगी) में से कई-एक हो, तो उसे 'भाव' कहा जाता है।
जैसा कि कहा भी है-"व्यभिचार्य जितो भावःअर्थात् ध्वनित होनेवाले व्यभिचारी-भाव को 'भाव' कहा जाता है।
भाव किस तरह ध्वनित होते हैं?
भावों के ध्वनित होने के विषय मे यह सिद्धांत है किजो हर्षादिक सामाजिकों अर्थात् नाटकादि देखनेवालो और काव्य पढ़ने सुननेवालों के अंदर ( वासना रूप से ) रहते हैं, उन्ही की, स्थायी भावों की तरह, अभिव्यक्ति होती है। पर कुछ विद्वानों का मत है कि वे भी रस की तरह ही अभिव्यक्त होते हैं। अन्य विद्वान् यह भी कहते हैं कि उनकी अभिव्यक्ति, अन्य व्यंग्यों-अर्थात् वस्तु अलंकारादिकों ( जिनका वर्णन दूसरे आनन के प्रारंभ मे है) की तरह, होती है।
- ↑ * नागेश का मत है कि इस लक्षण मे यदि 'अनुभाव के अतिरिक्त' इतना और निवेश कर दिया जाय, तो यह लक्षण भी ठीक हो सकता है।