पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३२२

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भावों के व्यंजक कौन हैं?

भावों के अभिव्यक्त करनेवाले केवल विभाव और अनुभाव ये दो ही हैं। एक व्यभिचारी के ध्वनित करने में दूसरे व्यभिचारी को व्यंजक मानना आवश्यक नहीं, क्योंकि यदि ऐसा माने तो वही ( व्यंजक ही) प्रधान हो जायगा । कारण यह है कि जैसा यह व्यभिचारी भाव अभिव्यक्त होता है, वैसा ही वह भी अभिव्यक्त होता है उसमें अभिव्यंजकता अधिक है। अतः भावों के दो ही व्यंजक मानना उचित है। पर, वास्तव में देखा जाय, तो प्रकरणादि के अधीन होने के कारण यदि एक भाव प्रधान हो, और उसको ध्वनित करनेवाली सामग्री के द्वारा, अन्य भाव से रहित केवल प्रधान भाव ध्वनित ही न होता हो इस कारण, यदि कोई अन्य भाव भी अभिव्यक्त हो जाय, और वह भाव प्रकरण-प्राप्त भाव की अपेक्षा हीन होने के कारण, यदि उसका अंग वन जाय, तो भी कोई हानि नहीं। जैसे कि गर्व-आदि मे अमर्ष और अमर्ष-आदि मे गर्व। आप कहेंगे कि यदि ऐसा हुआ, तो उस काव्य को 'भावध्वनि' नहीं कह सकते, किंतु वह 'गुणीभूत व्यंग्य' हो जायगा; क्योंकि उसमे एक भाव दूसरे भाव की अपेक्षा गौण हो गया है। सो नही हो सकता; क्योंकि जो भाव पृथक विभावों और अनुभावो से अभिव्यक्त हुअा हो, और जिसका अनुभाव, विभाव के रहने से अभिव्यक्त होना आवश्यक हो, तो उसको गुणीभूतव्यग्य कहा जा सकता है;