पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३२३

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अन्यथा गर्वादिकों की ध्वनि का लोप ही हो जायगा, क्योंकि वे कभी अमर्षादि से रहित ध्वनित ही नहीं होते। विभाव-शब्द से भी यहाँ व्यभिचारी-भाव का साधारण निमित्त कारण लिया जाता है; रस की तरह सर्वथा आलंबन और उद्दीपन होना अपेक्षित नहीं। पर, यदि कहीं ऐसे विभाव हों कि जो भाव के आलम्बन और उद्दीपन हो सके तो निषेध भी नही है।

भावों की गणना

हर्षादिक भाव ३४ हैं। उनमे से-हर्ष, स्मृति, ब्रीडा, मोह, धृति, शंका, ग्लानि, दैन्य, चिंता, मद, श्रम, गर्व, निद्रा, मति, व्याधि, त्रास, सुप्त, विबोध, अमर्ष, अवहित्था, उग्रता, उन्माद, मरण, वितर्क, विषाद, औत्सुक्य, आवेग, जड़ता, आलस्य, असूया, अपस्मार, चपलता और प्रतिपक्षी के द्वारा किए गए तिरस्कार-आदि से उत्पन्न हुआ निर्वेद ये ३३ व्यभिचारी हैं और चौतीसवाँ है गुरु, देवता, राजा और पुत्र-आदि के विषय में होनेवाला प्रेम।

'वात्सल्य' रस नहीं है

पूर्वोक्त गणना से यह सिद्ध होता है कि जो कुछ विद्वानों का यह कथन है कि 'पुत्रादिक जिस रतिके आलंबन होते हैं, वह 'वात्सल्य' नामक भी एक रस है', सो परास्त कर दिया गया; क्योंकि भरत-मुनि के वचन के आगे उनकी उच्छृंखलतामनमानी नहीं चल सकती । उसे भाव ही मानना उचित है।