पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३२६

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मंद हास, वे श्वास, वह कलंकरहित और मधुर मुख की शोभा, हाय! आज तक भी मेरे हृदय को उन्मत्त बना देते हैं।

यहाँ एक प्रकार की चिंता विभाव है; भौहों का ऊँचा करना, शरीर का निश्चल होना-जो कि ऊपर से समझ लिए जा सकते हैं-अनुभाव है। यद्यपि यहाँ इस स्मृतिरूपी संचारी भाव, नायिकारूपी विभाव और 'हंत' अथवा 'हाय' पद के द्वारा व्यंग्य हृदय की विकलता रूपी अनुभाव-इन सब के संयोग से 'विप्रलंभ-रस' की अभिव्यक्ति होती है, इस कारण यहाँ 'रस-ध्वनि' कही जा सकती है, तथापि प्रथम स्मृति की ही स्फूर्ति होती है सबसे पहले वही हृदय में आती है और चमत्कारिणी भी है, इस कारण इसे 'स्मृति (भाव) ध्वनि' का उदाहरण माना गया है।

यहाँ एकशंका होती है। नैयायिकों की पदार्थ-विज्ञान-शैली के अनुसार 'तत् (वह)' पद के अर्थ के विषय मे दो मत हैं। एक यह कि जिस पदार्थ का 'तत्' पद से वर्णन किया जाता है, उसका तत् पद के द्वारा, असाधारण रूप मे ही बोध होता है, पर उस दशा में वह पदार्थ 'बुद्धिस्थ' विशेषण से विशिष्ट समझा जाता है। अर्थात् "तत् हसितम्" यहाँ 'वत्' पद का अर्थ है बुद्धिस्थ लोकोत्तर सौन्दर्ययुक्त। यहाँ हसित का विशेषण (भेदक) लोकोत्तर सौन्दर्य है और उसका उपलक्षण है बुद्धिस्थत्व। ऐसे हसित को बोधन करने की तत्पद मे शक्ति है अतः हसित तत्पद का शक्य (अर्थ) है। विशेषण शक्यतावच्छेदक (किसी शक्य