पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३३६

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एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि जिसमे केवल कान्ति ही बच रही हो ऐसी नवीन चन्द्र-कला के समान, सेवाल की सेज पर सोई हुई, वह सुन्दरी समीप मे आए हुए भी पति का केवल मधुर चितवनों से ही सत्कार कर रही है।

यहाँ प्रेमी का विरह विभाव है और 'मधुर चितवनी से ही' यहाँ 'ही' के द्वारा समझाई हुई, खागत के लिये सामने जाने, प्रणाम करने और प्रालिगन करने आदि की निवृत्ति अनुभाव है। यहाँ श्रम-माव की शका करना उचित नही; क्योंकि यहां किसी भी श्रमोत्पादक कारण का वर्णन नहीं है।

कुछ विद्वान “रोगादि से उत्पन्न होनेवाले बल्ल के नाश को ही 'ग्लानि' " कहते हैं। पर, उनके मत मे यह बात विचारने योग्य है कि जितने भाव हैं, वे सब चित्त-वृत्तिरूप हैं, फिर उनमे नाश (अभाव) रूप ग्लानि का समावेश कैसे होगा? अतः उनका यह कथन कुछ जँचता नही। यद्यपि प्राचीन आचार्यों के "बलस्याऽपचयो ग्लानिराधिव्याधिसमुद्भवः-अर्थात् मानसिक कष्ट और रोगो से उत्पन्न होनेवाले बल के अपचय का नाम 'ग्लानि है" इस लक्षण में 'अपचय' शब्द से नाश का ही बोध होता है, तथापि पूर्वोक्त अनुपपत्ति के कारण, बल के नाश से उत्पन्न होनेवाले दुःख को ही 'बल का अपचय' इस शब्द से कहना अभीष्ट है, यह, समझना चाहिए।