पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( २२२ )

८-दैन्य

दुःख, दरिद्रता तथा अपराध आदि से उत्पन्न हुई और अपने-माप के विषय में होन-शब्द बोलने आदि अनुभावों का उत्पन्न करनेवाली एक प्रकार की चित्तवृत्ति 'दैन्य' कहलाती है। उदाहरण लीजिए-

हतकेन मया वनान्तरे जलजाक्षी सहसा विवासिता।
अधुना मम कुत्र सा सती पतितस्येव परा सरखती॥

xxxx
सहसा, मैं हत, दीन्ह वन कमल-नयनि निकराय।
पतितहि श्रुति-सम वह सती मोहि कहाँ अब हाय।

मेरी बुद्धि मारी गई, मैंने कमल-नयनी (सीता) को जंगल में निकाल दिया। अब, वह पतिव्रता, पतित पुरुष को वेद-वाणी की तरह, मुझे कहाँ प्राप्त हो सकती है ? यह सीता के परित्याग के अनंतर भगवान रामचंद्र का वचन है।

यहाँ सीता का परित्याग अथवा परित्याग करने से उत्पन्न हुआ दुःख विभाव है और 'पवित के समान बवाना' रूपी जो अपने विषय मे हीनता का भाषण है. सो अनुभाव है। दैन्यभाव के विषय मे लिखा है कि-

चित्तौत्सुक्यान्मनस्तापादौर्गत्याच विभावतः।
अनुभावात्तु शिरसोऽप्यास्त्वेात्र गौरवात्॥
देहोपस्करणत्यागाद् दैन्यं भावं विभावयेत्॥