पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३४०

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तर श्वास तथा उच्छास, नीचा मुख, संताप, स्मरण, दुर्बलवा, देह को न सजाना और धैर्य का अभाव ये अनुभाव हों, उसे 'चिन्ता' कहा जाता है। इसके पहले अथवा पिछले क्षण में वितर्क (जिसका लक्षण मागे प्रावेगा) उत्पन्न हुआ करता है। और यह कि-

ध्यानं चिन्ता हितानाप्तेः सन्तापादिकरी मता।

अर्थात् लामदायी वस्तु के प्राप्त न होने से जो विचार होता है, उसे 'चिन्ता' कहते हैं, और वह सन्ताप आदि को उत्पन्न करती है। उदाहरण लीजिए-

अधरधुतिरस्तपल्लवा, मुखशोभा शशिकान्तिलङ्घिनी।
अकृतप्रतिमा तनः कृता विधिना कस्य कृते मृगीदृशः॥

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पल्लव-जयिनी अधर-युति मुख-छवि ससि-सिरताज।
अनुपम तन मृग-नयनि को किय विधना केहि काज॥

नायक मन में कह रहा है कि-विधाता ने मृगनयनी के, ये पल्लवों की शोभा को पराजित करनेवाली प्रघरों की कान्ति, चन्द्रमा की छवि को उल्लंघन करनेवाली मुख की शोभा तथा जिसके सहश कोई नही उत्पन्न किया गया वह शरीर, किसके लिये बनाए हैं।

यहाँ नायिका का न प्राप्त होना विभाव है और, ऊपर से समझ लिए गए, पश्चात्तापादिक अनुभाव हैं। 'यहाँ यह

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