पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३४३

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यहाँ मादक वस्तु का सेवन विभाव है और अस्पष्ट बोलनाआदि अनुभाव हैं। इस पद्य में जो मत्त पुरुष के स्वभाव का वर्णन किया गया है, वह उसके मद को ध्वनित करने के लिये किया गया है, इस कारण मद-भाव ही प्रधान है, 'स्वभावोक्ति' अलङ्कार नही, किन्तु वह उसकी ध्वनि को शोभित करनेवाला ही है।

पर, यदि कहो कि 'क्षीब' शब्द का अर्थ 'मत्त है, अतः उसमे विशेषण रूप से मद भी आ जाता है। और यह सिद्धांत है कि 'जिसमे किसी प्रकार भी वाच्य-वृत्ति का स्पर्श न हो, वही व्यंग्य चमत्कारी होता है तो हम स्वीकार करते हैं, कि यहाँ 'स्वभावोक्ति अलंकार को ही प्रधान मानना उचित है, मद-भाव की ध्वनि को नहीं; अतः दूसरा उदाहरण लीजिए-

मधुरसान्मधुरं हि तवाग्ध तरुणि! मद्वदने विनिवेशय।
मम गृहाण करेण कराम्बुजं प-प-पतामि हहा! भ-भ-भूतले॥

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मधुर मधुहुते तुव अधर मो-मुख दै लउँ चूमि।
मम कर-अम्बुज कर पकरु प-प-प-परयो भ-भ-भूमि॥

नायक नायिका से कहता है-हे तरुणि! मधु के रस से भी मधुर अपने अधर को मेरे मुंह में डाल दे और मेरे कर-कमल को अपने हाथ मे पकड़ ले ; देख तो, ज-ज-जमीन पर प-पपड़ा जा रहा हूँ।