पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३४५

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यह बल के विद्यमान होने पर भी उत्पन्न हो जाता है और शारीरिक कार्यों से ही होता है; किन्तु ग्लानि इस तरह नहीं होती, अत: ग्लानि का श्रम से भेद है। उदाहरण लीजिए-

विधाय सा मद्वदनानुकूलं कपोलमूलं हृदये शयाना।
चिराय चित्रे लिखितेव तन्वी न स्पन्दितु मन्दमपि क्षमासीत्

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हिय सोई, करि ग्रीव मम मुँह-समुहै, बल-छीन।
चित्र-लिखित-सी सुचिर लैौ रचहु विचल सकी न॥

नायक अपने किसी मित्र के सामने विपरीव-सुरत के अनन्तर की स्थिति का वर्णन कर रहा है। वह कहता है कि-वह कृशाङ्गो अपनी गरदन के अगले हिस्से को मेरे मुंह के सामने करके मेरे हृदय पर सो रही, और, चित्र मे लिखी हुई की तरह, बहुत देर तक, थोड़ी भी न हिल सकी।

यहाँ विपरीत-सुरतरूपी शारीरिक कार्य विभाव है और बिना हिले सोए रहना-आदि अनुभाव।

यहाँ यह शंका न करनी चाहिए कि यह पद्य निद्रा-भाव को ध्वनित करके गतार्थ हो जाता है, क्योंकि यदि निद्रा होती, तो उसमे मनुष्य को ज्ञान नहीं रहता, इस कारण चेष्टा का अभाव होता; और 'थोड़ा भी न हिल सकी' इस कथन का . कोई भी विशेष प्रयोजन नहीं रहता। दूसरे, 'शयाना' अथवा 'सोई इस कथन से निद्रा वाच्य हो जाती है, सो वह व्यंग्य