पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३५५

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उसे तर्कना करके समझ लेना चाहिए, उसका यहाँ स्पष्ट शब्दों में वर्णन नहीं है।

कुछ लोग 'विबोध को अविद्या के नाश से उत्पन्न होनेवाला भी मानते हैं। उनके हिसाब से-

नष्टो मोहः स्मृतिलब्धा त्वत्प्रसादान्मयाऽच्युत!
स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव॥

अर्जुन कहता है कि-हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मुझे स्मृति प्राप्त हो गई अर्थात् जिन बातों को मैं भूल रहा था, वे मुझे फिर से उपस्थित हो गई। अब मैं संदेहरहिव होकर स्थित हूँ, आपकी आज्ञा का पालन करूँगा। इस भगवद्गीता के पद्य को उदाहरण देना चाहिए।

यहाँ "नितरां हितयाऽद्य निद्रया मे"... इस पय का वाक्यार्थ मेघ के विषय में होनेवाली असूया है" यह शंका करना ठीक नही। क्योंकि जब पहले विबोध का ज्ञान हो जायगा, तब विबोध की अनुचितता का बे मौके होने का पता लगेगा; और उसके अनंतर होगी अनुचित विबोध के उत्पन्न करनेवाले मेघ मे असूया। सो वह विबोध का मुँह देखनेवाली है अतएव विलंब से प्रतीत होती है, इस कारण उसकी प्रधानता नही हो सकती। हाँ, उसकी प्रधानता हो सकती है, पर तब, जब कि मेघ के विषय में निर्दयता आदि का बोध करानेवाला कुछ भी हो। इसी तरह यहाँ खान-भाव भी वाक्यार्थ