पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३६३

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र्भाव हो सकता है, तथापि इसे जो पृथक् लिखा गया है, सो यह समझने के लिये कि इस व्याधि मे अन्य व्याधियों की अपेक्षा एक प्रकार की विचित्रता है अर्थात् अन्य रोगों से इस रोग का ढंग कुछ निराला ही है।

२३-मरण

रोग आदि से उत्पन्न होनेवाली जो मरण के पहिले की सूर्धारूप अवस्था है, उसे 'मरण' कहते हैं। यहाँ 'प्राणों का छट जाना' रूपी जो मुख्य मरण है, उसका ग्रहण नही किया जा सकता, क्योंकि ये जितने भाव हैं, वे सब चित्तवृत्तिरूप हैं, उनमें उस प्रकार के मरण का कोई प्रसंग ही नहीं। दूसरे, शरीर-प्राण-संयोग हर्ष आदि सभी व्यभिचारी भावों का कारण है। वह ऐसा कारण नहीं कि केवल कार्य की उत्पत्ति के पूर्व ही वर्तमान रहे, किन्तु ऐसा कारण है जो कार्य की उत्पत्ति के समय भी रहता है। इस अवस्था में मरणभाव मुख्य मरण (शरीर-प्राण-वियोग) रूप में नहीं लिया जा सकता, क्योंकि उसकी उत्पत्ति के समय शरीर-प्राण-संयोग उसका कारण नही रह सकता। अतः मरण के पूर्वकाल की चित्तवृत्ति ही यहाँ मरणनामक व्यमिचारो भाव है। क्योंकि उसकी उत्पत्ति के समय शरीर-प्राणसंयोग रहता है। उदाहरण लीजिए-

दयितस्य गुणाननुस्मरन्ती
शयने सम्पति या विलोकिताऽऽसीत्।