पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३६४

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अधुना खलु हन्त! सा कृशाङ्गी
गिरमङ्गीकुरुते न भाषितापि॥
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जेहिं पिय-गुन सुमिरत अवहिं सेज विलोकी हाय!
अब वह बोलति ना सुतनु थके बुलाय बुलाय॥

एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि जिसको, अभी, प्रियतम के गुणों का स्मरण करते हुए, शय्या पर, देखा था; हाय! वह कृशांगी, इस समय, बुलाने पर भी नहीं बोलती-उसकी जबान बंद हो गई है।

यहाँ प्यारे का विरह विभाव है और जबान बंद हो जाना अनुभाव। इस पद्य में 'हमत' अथवा 'हाय' पद अत्यंत उपकारक है, अतः यद्यपि यह भाव वाक्य भर का व्यंग्य है, तथापि यहाँ पद का व्यंग्य हो गया है। इससे "भाव यदि पद से व्यंग्य हो तो उसमे अधिक विचित्रता नहीं रहती" यह कथन परास्त हो जाता है। "प्रियतम के गुणो का स्मरण करते हुए" इस कथन से यह बात सूचित होती है कि“यहाँ ध्वनित होनेवाली जो अंतिम अवस्था है, उसमें भी उसे प्यारे के गुणों का विस्मरण नहीं हुआ था", और वह अंत मे अभिव्यक्त होनेवाले विप्रलंभ-शृंगार को अथवा करुण-रस के स्थायी-भाव शोक को पुष्ट करती है। यहाँ यह समझ लेने का है कि यह भाव, संदर्भ मे, इस वाक्य के अनंतर पानेवाले दूसरे वाक्य से यदि नायिकादिक के पुन-