पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३६७

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यहाँ अपने अपकर्ष और शत्रुओं के उत्कर्ष का देखना विभाव है और जीवन के निकलने की चाहना और उसके द्वारा आक्षिप्त मुँह नीचा करना आदि अनुभाव हैं। इसी विषाद की ध्वनि को, "दुर्योधन के" यह अर्थातर-संक्रमित वाच्यध्वनि-जिससे अत्यंत दुःखीपन आदि व्यक्त होता है-अनुगृहीत (परिपुष्ट) करता है। "यह पद्य 'त्रास-भाव' की ध्वनि है" यह शंका करना उचित नहीं; क्योंकि परमवीर दुर्योधन को त्रास का लेश भी स्पर्श नही कर सकता। न चिंता को ही ध्वनि कही जा सकती है, क्योंकि उसका यह निश्चय है कि "मैं युद्ध करके मरूँगा।" दैन्य की ध्वनि मानें सो भी नहीं; क्योंकि सब सेना का क्षय होने पर भी उसने विपत्ति को गिना ही नहीं। वीर-रस की ध्वनि भी नहीं बन सकती, क्योंकि वह अपने वचन मे मरण को अपना रक्षक कह रहा है और 'उत्साह' का प्राण है दूसरे को नीचा दिखाना, सो वह यहाँ है नहीं और बिना उसके 'वीर-रस' की बात उठाना ही अनभिज्ञता है।

निम्नलिखित पद्य को विषादध्वनि का उदाहरण कहना उचित नही-

अयि! पवनरयाणां निर्दयानां हयानां
श्लथय गतिमहं नो सङ्गरं द्रष्टुमीहे।
श्रुतिविवरममी मे दारयन्ति प्रकुप्य-
द्भुजगनिभभुजानां बाहुजानां निनादाः।
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