पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( २५६ )

कार्याविवेको जडता पश्यतः शृण्वतोऽपि वा।
तद्विभावाः प्रियानिष्टदर्शनश्रवणे रुजा॥
अनुभावास्त्वमी तूष्णीम्भावविसरणादयः।
सा पूर्वं परतो वा स्यान्मोहादिति विदां मतम्॥

अर्थात् देखते अथवा सुनते हुए भी कर्त्तव्य का विवेक न होने को जड़ता कहते हैं। उसके विभाव हैं प्यारे अथवा प्यारी के अनिष्ट का देखना-सुनना तथा रोग; और चुप हो जाना, भूल जाना-आदि अनुमाव हैं। वह मोह के पहले अथवा पीछे उत्पन्न हुआ करती है। यह विद्वानों का मत है। उदाहरण-

यदवधि दयितो विलोचनाभ्यां
सहचरि! दैववशेन दूरतोऽभूत्।
तदवधि शिथिलीकृतो मदीयै-
रथ करणैः प्रणयो निजक्रियासु॥
xxxx
जब ते सखि! दयितहिं दई कीन्ह लोचननि दूर।
तब ते मम इंद्रिन क्रिया करी शिथिल भरपूर॥

नायिका अपनी सखी से कहती है-हे सहेली! दैवाधीन होने के कारण जब से प्रियतम आँखों से दूर हुए हैं, तब से मेरी इंद्रियों ने अपने अपने कामों से प्रेम शिथिल कर दिया है-अब वे काम करना चाहती ही नहीं।

यहाँ प्यारे का विरह विभाव है और आँख-कान आदि इंद्रियों का अपने अपने ज्ञानों में प्रेम शिथिल कर देना-अर्थात्