से अथवा निष्फल जगत से क्या फल है! मेरे लिये न यह जीवन काम का है, न जगत्।
यहाँ यदि आप शंका करे कि 'निर्वेद' शांत-रस का स्थायी भाव है, सो इस पद्य को शांत-रस की ही ध्वनि क्यों न मान लिया जाय, भाव की ध्वनि क्यों माना जाय; तो इसका समाधान यह है कि जो निर्वेद शांत-रस का स्थायी भाव है, वह नित्य और अनित्य वस्तुओं के विवेक से उत्पन्न हुआ करता है; पर यह वैसा नहीं है; सो इस निर्वेद के कारण यह पद्य रस की ध्वनि नहीं कहा जा सकता।
३४-देवता आदि के विषय मे रति
जैसे-
भवद्द्वारि क्रुध्यज्जयविजयदण्डाहतिदल-
त्किरीटास्ते कीटा इव विधिमहेन्द्रप्रभृतयः।
वितिष्ठन्ते युष्मन्नयनपरिपातोत्कलिकया
वराकाः के तत्र क्षपितमुर! नाकाधिपतयः॥
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क्रोधयुक्त जय-विजय-दड की गहरी चोटन।
दलित किरीट, सुफीट-सरिस, विधि औ बलसूदन।
नैनपात की चाह रहे ठाढे तुव द्वारे।
कौन मुरारे! तहाँ नाकपति है बेचारे॥
भक्त की भगवान के प्रति उक्ति है कि-हे मुरारे! आपके द्वार पर, क्रोधयुक्त जय-विजय नामक पार्षदों के डंडों की चोटों