पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( २६७ )


से जिनके किरीट टूटे जा रहे हैं, वे ब्रह्मा और महेंद्र आदिक देवता, आपके नेत्रपरिपात की-एक बार अच्छी तरह देख लेने की-उत्कंठा से खड़े रहते हैं, फिर बेचारे स्वर्ग के स्वामी यम, कुबेर आदिक कौन चीज हैं-उन्हें तो गिनता ही कौन है।

यद्यपि आप कह सकते हैं कि यहाँ, 'अपमान सहन करके भी भगवान के द्वार की सेवा करने और उनके कटाक्षभाव की इच्छा आदि से भगवान के विषय मे ब्रह्मादिकों का प्रेम अभिव्यक्त नहीं होता, किंतु 'भगवान् का ऐश्वर्य वचन और मन के द्वारा अवर्णनीय तथा अज्ञेय है। यही अभिव्यक्त होता है; तथापि हम कहेंगे कि यहाँ कवि का भगवद्विषयक प्रेम अभिव्यक्त होता है और उसका अनुभाव है उस प्रकार के भगवदैश्वर्य का वर्णन करना। सो इसे देवताविषयक रति की ध्वनि का उदाहरण मानने में कोई बाधा नही।

पर यदि आप कहें कि यहाँ प्रधानतया ऐश्वर्य का ही वर्णन है, कवि की रति वो गौण है; तो छोड़िए झगड़ा, यह उदाहरण लीजिए-

न धनं न च राज्यसम्पदं न हि विद्यामिदमेकमर्थये।
मयि धेहि मनागपि प्रभो! करुणाभङ्गितरङ्गितां दृशम्॥
xxxx
ना धन, ना नृप-संपदा, ना विद्या की चाह।
यही चहौं मो पै करहु करुनाभरी निगाह॥