पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( २६८ )

भक्त भगवान् से कहता है-मैं न धन चाहता हूँ, न राज्य की संपत्ति चाहता हूँ और न विद्या ही चाहता हूँ। मैं तो एक यही चाहता हूँ कि हे प्रभो-हे मेरे स्वामिन्-तू मेरे ऊपर, दया की रचना से लहराती हुई दृष्टि को, यदि अधिक न हो सके तो थोड़ी सी ही, डाल दे।

यहाँ धनादिक की अपेक्षा से रहित भक्त की भगवान् के कटाक्षपात की अभिलाषा उनके विषय मे उसके प्रेम को अभिव्यक्त करती है।

इस तरह संक्षेप से भावों का निरूपण कर दिया गया है।

भाव ३४ ही क्यों हैं?

अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि भावों की संख्या का नियम कैसे हो सकता है, वे ३४ ही क्यों हैं? क्योंकि काव्यादिकों मे अनेक स्थलों पर मात्सर्य, उद्वेग, दंभ (कपट), ईर्ष्या, विवेक, निर्णय, क्लैब्य (कायरपन), क्षमा, कौतूहल, उत्कंठा, विनय (नम्रता), संशय और धृष्टता आदि भाव भी दिखाई देते रहते हैं, सो यह संख्या ठीक नहीं। इसका उत्तर यह है कि पूर्वोक्त भावों में ही उनका भी समावेश हो जाता है, अतः उन्हे पृथक् गिनने की कोई आवश्यकता नहीं। यद्यपि वास्तव में असूया से मात्सर्य का, त्रास से उद्वेग का, प्रवाहित्य से दंभ का, अमर्ष से या का, मवि से विवेक और निर्णय का, दैन्य से क्लैब्य का, धृति से क्षमा का, औत्सुक्य से कौतूहल और उत्कंठा का, लज्जा से विनय का, तर्क से संशय का और