पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३९५

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भावशांति

जिनके स्वरूप पहले वर्णन किए जा चुके हैं. उन भावों में से किसी भी भाव के नाश को 'भावशांति' कहते हैं। पर, वह नाश उत्पत्ति के समय का ही होना चाहिए-अर्थात् भाव के उत्पन्न होते ही उसके नाश का वर्णन होना चाहिए, उसके काम कर चुकने के बाद का नहीं; क्योंकि सहृदय पुरुषों को वही चमत्कृत करता है। उदाहरण लीजिए-

मुञ्चसि नाद्यापि रुष भामिनि! मुदिरालिरुदियाय।
इति तन्व्याः पतिवचनैरपायि नयनाब्जकोणशाणरुचिः॥
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"भामिनि! अजहु न तजसि तू रिस उनई धन-पाति।"
गयो सुतनु-दृग-कोन रँग सुनि पिय-बच इहि र्भाति॥

"हे कोपने! तू अब भी रोष नहीं छोड़ती, देख तो, मेघों की माला उदय हो आई है। इस तरह पति के वचनों ने, कृशांगी के नेत्र-कमल के कोने में जो अरुणकांति थी, उसे, पी डाला-वह उत्पन्न होते होते ही उड़ गई।

यहाँ प्यारे के पूर्वोक्त वचन का सुनना विभाव है, नेत्र के कोने मे उत्पन्न हुई ललाई का नाश, अथवा उसके द्वारा अभिव्यक्त होनेवाली प्रसन्नता अनुभाव है और इनके द्वारा उत्पत्ति के समय में ही रोष का नष्ट हो जाना व्यंग्य है ।