पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३९९

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सीता को वनवास देने के अनंतर भगवान राम कहते हैं-अरे! मुझ मृतक ने सीता को भी (जो पतिव्रताओं मे प्रधान है) निकाल दिया-यह पाप किया है, हाय! क्या वह चंद्रवदनी मेरे बिना जंगल मे जी सकती है? मैं भले मानुसों का मुँह कैसे देखूँ! वे मुझे क्या कहेंगे। यह राज्य रसातल में जाय, मैं जीना नहीं चाहता!

यहाँ 'अरे! मुझ मृतक ने' इस शब्द खंड से असूया, 'सीता को भी निकाल दिया' इससे विषाद, 'यह पाप किया है' इससे मति, 'वह चंद्रवदनी' इससे स्मृति, 'क्या मेरे बिना जी सकती है?' इससे वितर्क, 'मैं भले मानुसों का मुँह कैसे देखूँ। इससे लज्जा, 'वे मुझे क्या कहेंगे। इससे शंका, और 'यह राज्य रसातल मे जाय, मैं जीना नहीं चाहता।' इससे निवेद; ये भाव पूर्वोक्त विभावों के द्वारा अभिव्यक्त होते हैं और उनकी यहाँ शबलता हो गई है।

शबलता के विषय में विचार

काव्यप्रकाश की टीका लिखनेवालो ने जो यह लिखा है कि "उत्तरोत्तर भाव से पूर्व पूर्व भाव के उपमर्द (दबा दिए जाने) का नाम शबलता है"; सो ठीक नही; क्योंकि "पश्येत् कश्चिच्चल चपल रे! का त्वराऽहं कुमारी, हस्तालंब वितर हहहा। व्युत्क्रमः कासि यासि।" इस पद्य में शंका, असूया, धृति, स्मृति, श्रम, दैन्य, मति और औत्सुक्य भाव, यद्यपि एक दूसरे