पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/४०

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अन्यथा जो सब बातें रसगंगाधर में आ गई थीं उनके पृथक् संग्रह की—और वह भी ऐसे संग्रह की कि जिसमें कुछ भी नवीनता नहीं है—क्या आवश्यकता थी। "चित्रमीमांसा खंडन" के आरंभ मे यह श्लोक लिखा है—

सूक्ष्मं विभाव्य भयका समुदीरितानामप्पय्यदीक्षितकृताविह दूषणानाम्।
निर्मत्सरो यदि समुद्धरणं विदद्ध्यात्तस्याहमुज्ज्वलमतेश्चरणौ वहामि॥

अर्थात् इस अप्पय दीक्षित की कृति (चित्रमीमांसा) में मैंने, सूक्ष्म विचार करके, जो कुछ दूषण दिखाए हैं, उनका यदि कोई निर्मत्सर पुरुष उद्धार कर दे तो उस निर्मलबुद्धि पुरुष के दोनों पैरों को मैं अपने सिर पर रखूँगा। इससे भी इस संग्रह का कारण यही प्रतीत होता है।

काव्यमाला-संपादक ने यह भी लिखा है कि इतना अनुमान किया जा सकता है कि पंडितराज ने अप्पय दीक्षित के द्वेष से रसगंगाधर के द्वारा 'चित्रमीमांसा' का अनुकरण करना प्रारंभ किया था, सो उन्होंने भी अपने ग्रंथ को असमाप्त ही छोड़ दिया। पर यह बात बनती नहीं। कारण, यदि यह ग्रंथ चित्रमीमांसा के अनुकरण पर ही लिखा गया होता तो मीमांसा में तो काव्यलक्षण, रस, भाव, गुण आदि का कहीं निशान भी नहीं। फिर भला इस पुस्तक में इन सब विषयों के विवेचन की क्या आवश्यकता थी? और यदि वैसा ही करना था—अर्थात् अधूरा ही छोड़ना था—तो क्या पंडितराज भी चित्रमीमांसा की तरह ही, कोई श्लोक बनाकर