पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/४०२

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प्रधान नही हैं; किंतु गौण हैं और शांति आदि प्रधान हैं, तो जिन काव्यों मे भाव व्यंग्य होते हैं और शाति आदि वाच्य होते हैं, उनको आप भावशांति प्रादि की ध्वनियों नही कह सकते। जैसे कि-

उषसि प्रतिपक्षनायिकासदनादन्तिकमञ्चति प्रिये।
सुदृशो नपनाब्जकोणयारुदियाय त्वरयाऽरुणधुतिः॥
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सौति-सदन ते निजनिक्ट पिय आए लखि प्रात।
सुतनु-नयन कोननि उदै भई तुरत दुति रात॥

एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि-विरोधिनी नायिका (सौत) के घर से, सवेरे के समय, जब प्रियतम अपने घर पाए, तो सुनयनी नायिका के नयनकमलो के कोनों मे झट अरुण काति उदय हो आई।

यहाँ मूल में 'उदियाय' शब्द के द्वारा भाव के उदय की प्रतीति वाच्यरूप से ही कराई जा रही है। पर यदि आप कहे कि उदय के वाच्य होने पर भी भाव के वाच्य न होने के कारण इस काव्य को ध्वनि मानने में कोई बाधा नहीं तो हम कह सकते हैं कि आपके हिसाब से जो प्रधान है उदय, वह जब काव्य को ध्वनि कहलवाने की योग्यता नहीं रखता, तब अप्रधान (भाव) के कारण काव्य को ध्वनि कहना कैसे बन सकता है? पर हमारे मत मे तो उत्पत्ति