पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/४०६

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ध्वनियों में भावों का स्थिति के साथ अमर्ष आदि के रूप में अथवा केवल अमर्ष आदि के रूप में ही आस्वादन होता है; पर भावशांति आदि की ध्वनियों में भावों के साथ शांति आदि को अवस्थावाले होने का भी आस्वादन होता है।

रसों की शांति आदि की ध्वनियाँ क्यों नहीं होतीं?

रसों में तो शांति आदि होते ही नहीं; क्योंकि उनका मूल है स्थायी भाव; और यदि उसकी भी उत्पत्ति और शांति होने लगे तो उसका स्थायित्व ही नष्ट हो जाय, उसमें और साधारण भावों मे भेद ही क्या रहे? पर यदि कहो कि स्थायी भाव की भी अभिव्यक्ति के तो नाश आदि होते हैं, बस, उनको ही उसके शांति आदि मान लेंगे, सो उसमे कुछ चमत्कार नहीं; क्योंकि अभिव्यक्ति के नाश के उपरांत रहेगा ही क्या? इस कारण उसका यहाँ विचार नहीं किया जा रहा है।

रस भाव आदि अलक्ष्यक्रम ही हैं अथवा लक्ष्यक्रम भी?

यह जो पूर्वोक्त रति आदि व्यंग्यो का प्रपंच है, वह जहाँ प्रकरण स्पष्ट हो, वहॉ, जो पुरुष अत्यंत सहृदय है, उसे तत्काल विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों का ज्ञान हो जाता है, और उसके होते ही, बहुत ही थोड़े समय में प्रतीत हो जाता है, अतः अनुभवकर्त्ता को कारण और कार्य की पूर्वापरता का क्रम नहीं दिखाई पड़ता, सो इसे 'अलक्ष्यक्रम' कहा