पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/४१०

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नहीं है, अतः संलक्ष्यक्रम होने पर भी रस मानने में कोई बाधा नहीं*[१]। रहा पूर्वोक्त अभिनवगुप्त का वाक्य, सो उसमे जो 'रस,


  1. * यहां भी नागेश भट्ट की टिप्पणी है, और मार्मिक है। वे कहते हैं कि विभाव आदि की प्रतीति और रस की प्रतीति में जो सूक्ष्मकाल का अंतर होता है, जिसे कि क्रम कहा जाता है, उसकी यदि सहृदय पुरुष को प्रतीति हो जावे, तो विभावादिकों के और रस के पृथक्-पृथक् प्रतीत होने के कारण, रति आदि की प्रतीति के समय भी विभावादिकों की प्रतीति पृथक् रहेगी, और इस तरह विगलितवेद्यांतरता अर्थात् रस के ज्ञान के समय दूसरे ज्ञातव्य पदार्थों का न रहना नहीं बन सकती। और जब तक वह न बने, तब तक उसे रस कहा ही नहीं जा सकता। रही रस की विगलितवेद्यांतरता, सो वह तो सभी सहृदयों को संमत है, अतः आप (पंडितराज) को भी है ही। सो इस बात मे साधकयुक्ति है, फिर इसे युकिरहित कहना ठीक नहीं। यह तो है प्राचीन विद्वानों की रीति से समाधान।
    अब नवीन विद्वानों का समाधान सुनिए। वे कहते हैं कि कोई पद अथवा पदार्थ वक्ता आदि की विशेषता और प्रकरण आदि का साथ होने पर ही व्यंजक हो सकता है। अतः यह सिद्ध होता है कि उनके सहित ही विभावादिकों का ज्ञान होने के अनंतर रस की प्रतीति होती है, और विभाव आदि के ज्ञान तथा रस की प्रतीति के मध्य में जो क्रम रहता है, उसके न दिखाई देने के कारण अलक्ष्यक्रम कहा जाता है। अब सोचिए कि यदि प्रकरण आदि के ज्ञान का विलंब होने से विभाव आदि के ज्ञान में विलंब हो भी जाय, तथापि, पूर्वोक्त उदाहरण मे, अलक्ष्यक्रमता में कोई बाधा नहीं होती। क्योंकि विभावादिकों के ज्ञान और उसके उत्पन्न करनेवाले प्रकरणादि के ज्ञान के क्रम को लेकर अलक्ष्यक्रमता नहीं मानी जाती, किंतु विभावादिकों के ज्ञान से उत्पन्न होनेवाले रस आदि के ज्ञान के क्रम को लेकर मानी जाती है। इसी