पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/४११

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भाव आदि' अर्थ लिखा है, वहाँ 'रस आदि' शब्द का अर्थ 'रति आदि' समझना चाहिए, वास्तविक रस नहीं।

ध्वनियों के व्यंजक

सो इस तरह यह जो रस आदि ध्वनियों का व्यंजक निरूपण किया गया है, उसकी अभिव्यक्ति पदों, वर्णों, रचनाओं, वाक्यों, प्रबंधों (ग्रंथों) और पद के अंशों एवं जो अक्षररूप नहीं हैं, उन रागादिकों के द्वारा निरूपण की जाती है। उनमें से प्रत्येक का विवरण सुनिए-

पदध्वनि

यद्यपि वाक्य के अंतर्गत जितने पद होते हैं, वे सभी अपने अपने अर्थ को उपस्थित करके, समान रूप से ही, वाक्यार्थ के ज्ञान का साधन होते हैं, तथापि उनमें से कोई एक ही पद


अभिप्राय के अनुसार "अर्थशक्तिमूलक के १२ भेद होते हैं" इस अभिनवगुप्त की उक्ति को और विभाषादिकों के अतिरिक्त अन्य किसी वाच्यार्थ की अपेक्षा से क्रम भी ग्रहण किया जा सकता है, सो लक्ष्यक्रम होने की उक्ति को दोनों को किसी तरह ठीक कर लेना चाहिए। सहृदयों का अनुभव इस बात की साक्षी नहीं देता कि विभावादि की प्रतीति के अतिरिक्त अन्य किसी वाच्यार्य की प्रतीति होने पर भी विगलितविद्यांतरता हो जाय, कि जिससे वाच्यार्थ और विभावादि के क्रम का ज्ञान होने पर भी रसत्व नष्ट हो जाय। तात्पर्य यह कि विगलितवेद्यांतरता विभावादि की प्रतीति और रस की प्रतीति का क्रम न जानने पर हो जाती है, वाच्यार्य और विभावादि के क्रम से उससे कुछ संबंध नह।