पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/४१३

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परंतु नवीन विद्वानों का उनसे मतभेद है। वे कहते हैं कि-वर्ण और उनकी भिन्न भिन्न प्रकार की वैदर्भी आदि रचनाएँ माधुर्य आदि गुणों को ही अभिव्यक्त करती हैं, रसों को नहीं; क्योंकि ऐसा मानने मे एक तो व्यर्थ ही रसादिकों के व्यंजकों की संख्या बढ़ती है; दूसरे, इसमें कोई प्रमाण भी नहीं। पर, यदि आप कहो कि माधुर्य आदि गुण रसों मे रहते हैं, अतः उन्हें अभिव्यक्त किए बिना केवल गुणों की अभिव्यक्ति कैसे की जा सकती है? सो ठीक नहीं; क्योंकि बिना गुणी की अभिव्यक्ति के गुणों की अभिव्यक्ति न होती हो यह कोई, नियम नहीं है। देखिए, इस नियम की, नासिका आदि तीन इंद्रियों मे, भंग हो गया है। वे गंध आदि गुणो को अभिव्यक्त करती हैं, पर उन गुणों से युक्त पृथिवी आदि पदार्थों को नहीं। अर्थात् नाक से पृथिवी का अनुभव नहीं होता, केवल गंध का ही होता है इत्यादि। इस तरह यह सिद्ध होता है कि गुणी, गुण और इनके अतिरिक्त अन्य तटस्थ पदार्थों को अपने अपने अभिव्यंजक उपस्थित करते हैं। फिर वे कभी परस्पर संमिलित रूप से और कभी उदासीन रूप से उन उन ज्ञानों (दर्शन-श्रवणादिकों) के विषय हो जाते हैं, वैसे ही रस और उनके गुण भी अभिव्यक्ति के विषय होते हैं-अर्थात् वे पृथक् पृथक व्यजकों से उपस्थित किए जाते हैं, और, फिर कभी सम्मिलित रूप से तथा कभी उदासीन रूप से ग्रहण किए जाते हैं। सारांश यह कि वों और रचनाओं को