रसों का व्यंजक मानना ठीक नही, उन्हें केवल गुणों का व्यंजक मानना चाहिए।
वर्णों और रचनाओं की व्यंजकता का उदाहरण "तां तमालतरकांतिलधिनीस्..." इत्यादि पहले बता ही चुके हैं।
वाक्यध्वनि
वाक्यों की व्यंजकता का उदाहरण भी "प्राविभूता यदवधि मधुस्त्यदिनी......" इत्यादि दिखाया जा चुका है।
प्रबंधध्वनि
प्रबंधों-अर्थात् ग्रंथों-की व्यंजकता के विषय मे सुनिए। शांत-रस का उदाहरण है "योगवासिष्ठ" एवं करुण-रस का उदाहरण है "रामायण"। और रत्नावली आदि तो शृंगार के व्यंजक होने के कारण प्रसिद्ध ही हैं। रहे भाव के उदाहरण, सो उनमे मेरी (पंडितराज की) बनाई हुई "गंगालहरी" आदि पाँच लहरियाँ हैं।
पदैकदेशध्वनि
पदों के अंशो की व्यंजकता का उदाहरण, जैसे पूर्वोक्त "निखिलमिदं जगदंडकं वहामि" इस पद्यांश मे अल्पार्थक 'क' रूपी वद्धित-प्रत्यय वीर-रस का अभिव्यंजक है। अर्थात् उस प्रत्यय से वाक्य का यह तात्पर्य हो गया, कि यह छोटा सा जगत् का गोला क्या चीज है, जिससे वक्ता का उत्साह, जो वीर-रस का स्थायी भाव है, प्रतीत होता है। इसी तरह