पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/४१५

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रागादिकों की भी व्यंजकता

में सहृदयों का हृदय ही प्रमाण है। अर्थात् यदि उनका अनुभव है, तो उसे भी स्वीकार करना चाहिए।

इस तरह इन रसादिकों के प्रधान होने पर उदाहरण निरूपण कर दिए गए हैं। जब ये गौण हो जाते हैं, तब उनके उदाहरण और नाम (रसवान आदि) वर्णन किए जायँगे।*[१]

एक विचार

इस विषय मे भी विद्वानों का मतभेद है। कुछ विद्वान कहते हैं कि-"जब ये रसादिक प्रधान होते हैं, तभी इनको रसादिक कहना चाहिए, अन्यथा रति आदि ही कहना चाहिए। सो गायता की अवस्था में, "रलवान" नाम में जो रस शब्द है, उसका अर्थ रति आदि ही है, शृंगार आदि नहीं।"

दूसरे विद्वानों का कथन है कि "रसादिक तो वे भी हैं, पर उनके कारण उन काव्यों को ध्वनि (उत्तमोत्तम काव्य) नहीं कहा जा सकता।"



  1. * खेद है कि पंडितराज अपनी इस प्रतिज्ञा को पूर्ण न कर सके। उनका ग्रंथ अपूर्ण ही प्राप्त होता है और उसमें यह प्रकरण नहीं आ सका।

    -अनुवाद