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पादन अथवा वर्णन शब्दों के रूप में होता है, अतः यह समझना भी कठिन नहीं कि वह शब्द ही कवि का कार्य है।[१] तब इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रारंभ में किसी विषय के प्रतिपादन करनेवाले शब्दों को काव्य कहा जाता था।

अब आप देखिए कि काव्य का यह साधारण लक्षण किन किन विवेचकों की कैसी कैसी विचारधाराओं में प्रवाहित हुआ और अनेक टक्करें खाकर आज वह किस रूप में है।

अग्निपुराण (समय अनिश्चित)

सबसे प्रथम 'काव्यलक्षण' प्राप्य ग्रंथों में से अग्निपुराण में मिलता है। वहाँ लिखा है—

संक्षेपाद् वाक्यमिष्टार्थव्यवच्छिन्ना पदावली।
काव्यम् .. .. .. .. .......॥

अर्थात् संक्षेप से जो वाक्य होता है, उसका नाम काव्य है। और संक्षेप से वाक्य का अर्थ यह है कि जिस अर्थ को कहना चाहते हैं, वह जितने से कहा जा सकता है, उससे न अधिक और न न्यून, इस तरह की पदावली काव्य है।


  1. यद्यपि शब्दों की योजना कवि का कार्य्य है, तथापि जिस तरह कुम्हार का काम घड़े का निर्माण हो जाने पर भी घड़ा माना जाता है, उसी तरह शब्द भी कवि का कार्य्य कहलाता है। तात्पर्य यह कि यहाँ कर्म शब्द से की जानेवाली चीज ली गई है, करना नहीं और यह बात शास्त्रसिद्ध एवं विद्वत्संमत है।