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नहीं लिखा है; पर यह अवश्य स्वीकार किया है कि काव्य का शरीर शब्द और अर्थ है। वे एक प्रसङ्ग में कहते हैं कि "शब्दार्थशरीरं तावत् काव्यम्।"
भोज (ग्यारहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध)
इनके बाद संस्कृत-साहित्य के सुप्रसिद्ध प्रेमी धाराधराधीश्वर महाराज भोज का नंबर आता है। यद्यपि उन्होंने स्पष्ट रूप से कोई 'काव्यलक्षण' नहीं लिखा है; तथापि उनके "निर्दोषं गुणवत् काव्यमलंकारैरलंकृतम्। रसान्वितं कविः कुर्वन् कीर्त्तिं प्रीतिं च विदति।" इस सरस्वतीकंठाभरणस्थ पद्य से यह सिद्ध होता है कि वे भी शब्द और अर्थ दोनों को ही काव्य मानते हैं। क्योकि एक तो उन्होंने जो काव्य को 'रसान्वितम्' विशेषण दिया है, वह अर्थ को काव्य माने बिना ठीक ठीक नहीं घट सकता; क्योंकि रस का साक्षात् अन्वय केवल शब्दों से नही हो सकता। दूसरे 'अलंकारैः' से भी उन्हें शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों अभीष्ट हैं; सो अर्थ को काव्य माने बिना अर्थालंकार अलंकृत किसे करेंगे?[१]
मम्मट (बारहवीं शताब्दी)
अब आगे चलिए। आगे आलंकारिक जगत् के देदीप्यमान रत्न महामति मम्मटाचार्य का स्थान है। उन्होंने वामन
- ↑ वामनाचार्य झलकीकर ने काव्यप्रकाश की भूमिका में जो यह लिखा है—"निर्दोषं गुणालंकाररसवद् वाक्यं कान्यमिति भोजमतम्" सो प्रतीत होता है कि पुरःस्स्फूर्त्तिक है।