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के मत को अपनी आलोचनात्मक दृष्टि से देखा। वामन का 'गुणसहित' कहना तो उनकी समझ में आया; पर अलंकारों पर उतना जोर देना उन्हें न जँचा। बात भी ठीक है; काव्य में अलंकारों का अनिवार्य होना सर्वथा आवश्यक भी नहीं है। सो उन्होंने कहा कि "सब जगह अलंकार रहें; पर यदि कहीं वे स्पष्ट न भी रहे; तथापि दोषरहित और गुणसहित शब्द और अर्थ को काव्य कहा जाना चाहिए"।
वाग्भट (बारहवीं शताब्दी, मम्मट के पीछे)
पर, पीछे के विद्वानों का ध्यान, ध्वनिकार के सिद्धांतों का अच्छा प्रचार हो जाने के कारण, काव्य के जीवन रस की ओर गया। वाग्भट ने देखा, वामन गुणों और अलंकारों सहित शब्द और अर्थ को काव्य, और 'रीति' को काव्य का आत्मा मानते हैं, और काव्यप्रकाशकार दोषरहित और गुणसहित शब्द और अर्थ को काव्य कहते हैं; तथा रस को काव्य का आत्मा कहते हैं; तो लाओ हम इन सभी को लिख डाले। इसलिये उन्होंने "गुण, अलंकार रीति और रससहित तथा दोषरहित शब्द और अर्थ" को काव्य कहना शुरू किया।
पीयूषवर्ष (बारहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध)
इधर पीयूषवर्ष (चंद्रालोककार जयदेव) तो और भी बढ़े। वे वो दोषरहित एवं लक्षण, रीति, गुण, अलंकार,