पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/५७

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हम पूर्वोक्त लक्षणों का सिंहावलोकन करते हुए इस विषय को समाप्त करते हैं—

यह कहा जा चुका है कि वेदादिक के समय में 'किसी भी अर्थ के वर्णन' को काव्य कहा जाता था। उसके अन्तंर, पुराणों के समय में, लक्षण के प्रायः प्राचीन रूप में रहने पर भी[१] 'कविकल्पित सुंदर अर्थ के सौंदर्ययुक्त वर्णन' को काव्य माना जाता था। यह बात अग्निपुराण के पाठ से पूर्णतया सिद्ध हो जाती है; क्योंकि उसके लक्षण में सौंदर्य पर उतना जोर न दिया जाने पर भी, पदार्थों के वर्णन के लिये जिस सौंदर्य का संपादन अपेक्षित है, उसका उसमें विस्तृत विवेचन किया गया है। यह मत संभवतः दंडी तक चलता रहा।

तदनंतर रुद्रट, अथवा उनके पूर्ववर्ती किसी आचार्य, के समय से 'सुंदर अर्थ और उसके सौंदर्ययुक्त वर्णन' का नाम


  1. 'अग्निपुराण' में ऐतिहासिक व्यक्तियों को भी प्रबंध (आख्यायिका आदि) के अनुरूप बना लेने की अनुमति है। और थोड़ा भी फेर-फार होने पर ऐतिहासिकता नष्ट हो जाती है, क्योकि इतिहास में कल्पना को किंचित् भी स्थान नहीं। अतः हमने अर्थ को 'कविकल्पित' विशेषण लगाया है। इसी—अर्थात् वर्णनीय अर्थों को इच्छानुसार चित्रित कर डालने के ही—कारण, हमने, काव्य में वर्णित ऐतिहासिक और अनैतिहासिक सभी अर्थों को 'कल्पित' माना है; क्योंकि वे यथास्थित पदार्थों से पृथक् हो जाते हैं। सो इस विशेषण को 'काव्य लक्षण' में सर्वत्र अनुस्यूत समझिए।