पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/६१

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किसी प्रकार की कमी न करते हुए बार बार पद्य बनाते रहना, ये सब काव्य की संपत्ति—अर्थात् उसके उत्कृष्ट होने के कारण हैं। पर साथ ही वे एक और बात कहते हैं, जो अवश्य ध्यान देने योग्य है। वे कहते हैं—

न विद्यते यद्यपि पूर्ववासनागुणानुबन्धिप्रतिभानमअद्भुतम्।
श्रुतेन यत्नेन च वागुपासिता ध्रुवं करोत्येव कमप्यनुग्रहम्॥

अर्थात् यद्यपि पूर्वजन्म की वासना के गुण जिसके पीछे लगे हुए हैं वह संसार को चकित कर देनेवाली प्रतिभा नहीं है, तथापि शास्त्रश्रवण—अर्थात् व्युत्पत्ति और यत्न—अर्थात् अभ्यास—के द्वारा सेवन की हुई वाणी कुछ न कुछ अनुग्रह करती ही है। इससे यह अभिप्राय निकलता है कि यद्यपि काव्य के उत्कृष्ट होने के लिये स्वाभाविक प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास तीनों आवश्यक हैं, पर यदि वैसी प्रतिभा न हो, तथापि यदि व्युत्पत्ति और अभ्यास का बल उत्पन्न किया जाय तो काव्य बनाया जा सकता है। सारांश यह कि विशिष्ट प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास उत्कृष्ट काव्य के कारण हैं; पर साधारण प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास से भी काव्य बन सकता है।

इनके अनंतर रुद्रट एक शक्ति (प्रतिभा) को ही काव्य का कारण मानते हैं और उसका विवेचन करते हुए यों लिखते हैं—

मनसि सदा सुसमाधिनि विस्फुरणमनेकधाऽभिधेयस्य,
अक्लिप्टानि पदानि च विभान्ति यस्यामसौ शक्तिः।