पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/६९

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'काव्यलक्षण' के विवेचन में दिखा आए हैं। पर यह बात ठीक नहीं; क्योकि, लक्ष्य के अनुसार लक्षण हुआ करते हैं, लक्षण के अनुसार लक्ष्य नहीं। जब कि सारा संसार आज दिन तक केवल गुणों और अलंकारों से युक्त वर्णन को भी काव्य मानता चला आया है और आज भी वही परिपाटी प्रचलित है, तब आप उन्हें काव्यभेदों में से कैसे निकाल सकते हैं? हाँ, यह हो सकता है कि आप उन्हें अघम अथवा उससे भी नीचे दरजे का मान ले।

'चित्रमीमांसाकार' ने 'काव्यप्रकाश' के भेदों को ही लिखा है, उनमें किसी प्रकार की न्यूनाधिकता नहीं की है।

इनके बाद पंडितराज ने इस विषय पर कलम उठाई है। उन्होंने काव्य-प्रकाशकार के भेदों में एक भेद और बढ़ाकर उन्हें चार कर दिया है, जिसे आप अनुवाद में देख लेंगे। हाँ, इतना कह देना आवश्यक है कि पंडितराज ने जो एक भेद बढ़ाया है वह मार्मिक है, काव्यों के भेदों को समझनेवाले उसका किसी तरह निषेध नहीं कर सकते। दूसरे, काव्यप्रकाशकार की अपेक्षा इन्होंने उसे विशद भी अच्छा किया है और अप्पय दीक्षित के साथ शास्त्रार्थ करके ध्वनि का मर्म समझने की शैली भी स्पष्ट कर दी है।

रस

अब रसों की ओर ध्यान दीजिए। यह इतना गंभीर विषय है कि इस पर आज तक अनेक विद्वानों ने विचार