पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/७०

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किया है और आगे भी न जाने कहाँ तक होता रहेगा। परंतु हम प्रस्तुत विषय की ओर चलने के पहले आपसे नाटकों (दृश्य[१] काव्यों) की उत्पत्ति के विषय में कुछ कहना चाहते हैं। इसका कारण यह है कि रस का अनुभव, श्रव्य-काव्यों की अपेक्षा, दृश्य-काव्यों में ही स्पष्ट रूप से होता है। अतएव आज दिन तक उन्हीं को लेकर इस विषय का विवेचन किया गया है।

जब किसी भी प्राणी को इष्ट (जिसे वह चाहता है, उस) की प्राप्ति और अनिष्ट (जिसे वह नहीं चाहता, उस) की निवृत्ति होती है, तो उसके अंगों में अपने-आप ही एक प्रकार की स्फूर्त्ति उत्पन्न हो जाती है। अर्थात् प्रकृति का नियम है कि आनंदित प्राणी के अंग-उपांग विचलित हो उठते हैं। जो प्राणी गंभीर होते हैं, उनमें वह स्फूर्त्ति केवल मुख-विकास नेत्र-विकास आदि ही करके रह जाती है। पर, जो इतने गंभीर नहीं होते, वे ऐसी घटनाओं के होते ही एकदम उछल पड़ते हैं, और उनका वह आनंद इस तरह सब पर प्रकट हो जाता है। परिणाम यह होता है कि वह आनंद उस व्यक्ति


  1. काव्य की पुस्तकें दो विभागों में विभक्त हैं—एक दृश्य और दूसरे श्रव्यदृश्य-काव्य उन्हें कहते हैं, जिनमें वर्णित चरित्रों का अभिनय किया जाता है—जैसे शाकुन्तल आदि। और श्रव्य-काव्य उनका नाम है, जिनका अभिनय नहीं होता, किन्तु लोग उसे सुनकर ही आनन्द उठा लेते हैं जैसे—रघुवंश आदि।