पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

[७०]

प्रारंभ हुई। वही वस्तु साहित्य की परिभाषा में 'रस्यतेऽसौ रसः' इस व्युत्पत्ति के द्वारा 'रस' कही जाती है।

सोचते सोचते पहले पहल वे लोग स्थूल विचार के द्वारा इस परिणाम पर पहुँचे कि जिससे हम प्रेम आदि करते हैं, वह प्रेम आदि का आलंबन नट को अभिनय करते देखकर हमारे ध्यान में आ जाता है, और उसका बार-बार अनुसंधान करने से हमे आनंद का अनुभव होता है; अतः वह प्रेम आदि का आलंबन—वह विभाव ही रस है। वे कहने लगे कि—"भाव्यमानो विभाव एंव रसः"। अर्थात् बार बार अनुसंधान किया हुआ प्रेम-आदि का आलंबन ही रस है। यह मत प्रस्तुत पुस्तक में नौवाँ है।

२—पर, पीछे से लोगों को इस बात के मानने में विप्रतिपत्ति हुई। उन्होंने सोचा कि यदि प्रेम आदि का आलंबन ही रसरूप हो, तो जब वह प्रेम-आदि के प्रतिकूल चेष्टा करे, अथवा प्रेम आदि के अनुकूल चेष्टाओं से रहित हो, तब भी उसे देखकर हमे आनंद आना चाहिए; क्योंकि आलंबन तो तब भी वही था और अब भी वही है, उसमे कुछ फेर-फार तो हुआ नहीं। पर, ऐसा होता नही। इस बात को एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट कर लीजिए। कल्पना कीजिए कि एक नट ने पहले दिन सीता अथवा शकुंतला का पार्ट लिया था, और उसे देखकर—उसे अपने प्रेम का आलंबन मानकर—सहस्रों सामाजिक (दर्शक) मुग्ध हो गए थे। उसी नट